शोहदा-ए-करबला की याद में मुस्लिम समाज लूटा रहा लंगर, दुरूद और फातेहा का दौर जारी
शाजापुर। मोहर्रम पर्व पर मुस्लिम समाज के लोग जहां पूरी अकीदत के साथ शोहदा-ए-कर्बला को याद करते हुए दुरुद और फातेहा पढऩे में लगे हुए हैं। वहीं शहर के कुछ हिंदू परिवार भी मोहर्रम पर्व पर शहीद-ए-कर्बला को याद करते हुए दुलदुल की सेवा में लगे हुए हैं और यह सिलसिला करीब 250 सालों से निरंतर जारी है। शहर के मीरकला बाजार स्थित रामलाल चौहान का परिवार पीढिय़ों से मोहर्रम पर्व पर दुलदुल और ताजियादारी कर शहीद-ए-कर्बला के प्रति अपनी आस्था और प्रेम को प्रकट कर रहा है। चौहान परिवार का कहना है कि उनके पूर्वज बोंदरजी चौहान के यहां कोई संतान नहीं थी, जिसके चलते उन्होंने मोहर्रम पर्व पर शोहदा-ए-कर्बला से संतान प्राप्ति की मन्नत मांगी। बोंदरजी ने मन्नत मांगी थी कि यदि उनके यहां संतान होती है तो वे अपने घर में दुलदुल की स्थापना कर मोहर्रम मनाएंगे, इस मन्नत के बाद उनके यहां रामचंद्र चौहान का जन्म हुआ जिसके बाद बोंदरजी ने अपने हाथों से दुलदुल तैयार किया और शहीदे कर्बला की याद में मोहर्रम पर्व मनाने लगे। बोंदरजी की इस परंपरा का परिवार के लोग आज भी निर्वहन कर रहे हैं और आस्था स्वरूप मोहर्रम पर्व पर मीरकला बाजार स्थित अपने निवास पर दुलदुल और ताजिए को रखकर शहीदे कर्बला को याद कर रहे हैं। वर्तमान में रामलाल चौहान और उनका परिवार दुलदुल की पूरी अकीदत के साथ सेवादारी में लगा हुआ है।
जारी है दुरूद और फातेहा का दौर
मोहर्रम की शुरुआत के साथ ही मुस्लिम समाज के लोग शोहदा-ए-कर्बला की याद मे दुरूद और फातेहा पढ़ रहे हैं। साथ ही जगह-जगह दूध शरबत और खिचड़ी का लंगर भी लुटाया जा रहा है। वहीं अहले बैत से मोहब्बत करने वाले उनकी याद में दुलदुल और बुर्राक की खिदमत कर रहे हैं।
दुलदुल रखने के पीछे यह है मान्यता
मुस्लिम धर्मगुरूओं के अनुसार जब हक और इंसानियत के लिए हजरत इमाम हुसैन और उनका परिवार कर्बला के मैदान में शहीद हो गया था, तब हजरत कासिम का घोड़ा जिसका नाम दुलदुल था उसने भी पानी नहीं पीते हुए हजरत इमाम हुसैन के परिवार के प्रति अपनी मोहब्बत जाहिर की थी और प्यासा ही जंग के मैदान में शहीद हो गया था। शहीदे कर्बला से मोहब्बत रखने वाले दुलदुल की इसी कुर्बानी के चलते उसे मोहर्रम पर्व पर याद करते हुए उसका अद्बो एहतराम किया जाता है। इसीके साथ कर्बला की याद में ताजिया बनाया जाता है।